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रांची/डेस्क: भारत के स्टार क्रिकेटर युजवेंद्र चहल (Yuzvendra Chahal) और धनश्री वर्मा (Dhanashree Verma) के तलाक के बाद, चहल को कोर्ट के आदेश पर 4.75 करोड़ रुपये की एलिमनी राशि चुकानी है. अब तक उन्होंने करीब 2.30 करोड़ रुपये चुका दिए हैं, और बाकी की रकम जल्द अदा करेंगे. यह पहला मामला नहीं है जब तलाक के बाद एलिमनी की मोटी रकम चर्चा में आई हो, चाहे वह हॉलीवुड के सेलिब्रिटी हों या बॉलीवुड के हाई-प्रोफाइल ब्रेकअप. तलाक और एलिमनी की रकम हमेशा से खबरों में बनी रहती है.
एलिमनी कैसे तय होती है?
इस मामले में कई लोग जानना चाहते हैं कि अदालतें कैसे तय करती हैं कि एक पति या पत्नी को दूसरे को कितनी एलिमनी दी जानी चाहिए. भारत में तलाक के मामलों में एलिमनी की रकम किसी निश्चित फॉर्मूले पर आधारित नहीं है. अदालतें दोनों पक्षों की वित्तीय स्थिति, कमाई की क्षमता और शादी में उनके योगदान जैसे कई पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इस बारे में फैसला करती हैं.
मैग्नस लीगल सर्विसेज एलएलपी की पार्टनर और फैमिली लॉ एक्सपर्ट निकिता आनंद के अनुसार, भारत में तलाक और एलिमनी के मामले में कोई सख्त नियम नहीं हैं. अदालतें विभिन्न कारकों को ध्यान में रखकर फैसला करती हैं, जैसे कि दोनों पक्षों की वित्तीय स्थिति, उनकी कमाई की क्षमता, और शादी में किए गए योगदान. उदाहरण के लिए, अगर एक पत्नी 20 साल से घर संभाल रही है और अब वह तलाक लेती है, तो कोर्ट उसकी स्वतंत्र आय की कमी और पति की आय को ध्यान में रखकर एलिमनी तय करेगा.
कमाई और शादी के दौरान बर्ताव का महत्व
अगर कोई पत्नी, जैसे प्रिया, अपने पति के व्यवसाय, परिवार और बच्चों के लिए अपने करियर से समझौता करती है, तो अदालत यह मानती है कि उसने परिवार के भले के लिए अपनी आजीविका छोड़ दी. इस स्थिति में, एलिमनी का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वह तलाक के बाद भी अपने जीवन स्तर को बनाए रखे, और कोर्ट पति की वित्तीय क्षमता को भी ध्यान में रखेगा.
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट श्रीसत्य मोहंती के अनुसार, गुजारा भत्ता तय करते समय अदालतें विभिन्न पहलुओं पर विचार करती हैं, जैसे दोनों पक्षों की आय, विवाह के दौरान व्यवहार, सामाजिक स्थिति, व्यक्तिगत खर्च और आश्रितों की जिम्मेदारियां. इस आधार पर कई केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में परवीन कुमार जैन बनाम अंजू जैन मामले में गुजारा भत्ता तय करने के कुछ महत्वपूर्ण कारकों का उल्लेख किया है:
- दोनों पति-पत्नी की सामाजिक और वित्तीय स्थिति
- पत्नी और बच्चों की जरूरतें
- दोनों पक्षों की रोजगार स्थिति और योग्यता
- आवेदक की स्वतंत्र आय या संपत्ति
- विवाह के दौरान जीवन स्तर
- पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए किए गए त्याग
- गैर-कामकाजी जीवनसाथी के लिए कानूनी खर्च
- पति की वित्तीय स्थिति, जिसमें उसकी आय और कर्ज शामिल हैं
इसके अलावा, सर्वोच्च अदालत ने महिला केंद्रित कानूनों के दुरुपयोग के प्रति भी चेतावनी दी है, और कहा है कि गुजारा भत्ता आश्रित पति या पत्नी को सुरक्षा देने के लिए होना चाहिए, न कि किसी को दंडित करने के लिए.
क्या पति को भी गुजारा भत्ता मिल सकता है?
आमतौर पर, गुजारा भत्ता पत्नी द्वारा पति से प्राप्त वित्तीय सहायता से संबंधित होता है, लेकिन भारतीय कानून कुछ विशेष परिस्थितियों में पुरुषों को भी गुजारा भत्ता मांगने की अनुमति देता है. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत, पति भी गुजारा भत्ता मांग सकता है, क्योंकि यह जेंडर न्यूट्रल अप्रोच अपनाता है. हालांकि, इस परिदृश्य में पुरुषों को गुजारा भत्ता तब मिलता है, जब वे साबित कर सकें कि वे अपनी पत्नी पर आर्थिक रूप से निर्भर थे, जैसे कि विकलांगता या अन्य कारणों से कमाई में कठिनाई.
दूसरे देशों में क्या है कानून?
अन्य देशों में गुजारा भत्ता तय करने के अपने तरीके होते हैं. कुछ देश सख्त नियमों का पालन करते हैं, जबकि कुछ अन्य व्यापक दिशा-निर्देशों का इस्तेमाल करते हैं. अमेरिका जैसे देशों में, कुछ राज्य आय, विवाह की अवधि और दोनों पार्टनर्स की कमाई की क्षमता के आधार पर निर्णय लेते हैं, जबकि ब्रिटेन में निष्पक्षता को प्राथमिकता दी जाती है ताकि दोनों पार्टनर्स एक समान जीवन स्तर बनाए रख सकें.
यूरोपीय देशों जैसे जर्मनी और फ्रांस में अल्पकालिक वित्तीय सहायता को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि स्कैंडिनेवियाई देशों में ज्यादातर दोनों पार्टनर्स से आत्मनिर्भर होने की उम्मीद की जाती है. मध्य-पूर्व में, जहां शरिया कानून लागू होता है, गुजारा भत्ता आमतौर पर अल्पकालिक होता है और तलाक के बाद सिर्फ वेटिंग पीरियड को कवर करता है.
भारत में अदालत की सहानुभूति
भारत में, तलाक के मामलों में दोष आधारित प्रणाली का पालन किया जाता है, जिसमें पत्नी को अक्सर अदालत की सहानुभूति मिलती है और पति को क्रूरता या व्यभिचार जैसे आरोप साबित करने होते हैं. इसके विपरीत, कई पश्चिमी देशों में दोष-रहित तलाक प्रणाली लागू है, जहां अदालतें अधिक तटस्थ दृष्टिकोण अपनाती हैं. भारत में अदालतें केस के आधार पर एकमुश्त या मासिक गुजारा भत्ता का आदेश दे सकती हैं.